Sunday, April 25, 2010

बीपीएल के मजे लूट रहे करोड़पति

बिलोव पूवरटी लाइन, यानि गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोग। इस श्रेणी में शामिल होने के लिए मारामारी तो खूब देखी होगी लेकिन, करोड़पति बीपीएल केवल गौतमबुद्धनगर में ही देखने को मिलेंगे। वे भी कोई आम आदमी नहीं विधायक, जिला पंचायत सदस्य या ग्राम प्रधान रह चुके हैं। बड़ी संख्या में ऐसे नाम भी हैं, जिनकी पूरी जानकारी प्रशासन और विकास विभाग को नहीं है। इन लोगों के नाम पर लाभ कौन ले रहा है, किसी को मालूम नहीं है।

गौतमबुद्धनगर जिले में 20900 परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। इनमें करोड़पति भी शामिल हैं। दादरी के पूर्व विधायक समीर भाटी का नाम भी उनके गांव मकौड़ा की बीपीएल सूची में दर्ज है। परिवार का आईडी नंबर 5739 है। उनके परिवार को 74 फीसदी स्कोरिंग दी गई है। समीर भाटी के पिता महेंद्र सिंह भाटी भी तीन बार विधायक रहे थे। इसी गांव के संजय भाटी पुत्र राजबीर भाटी जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं। उनका परिवार क्रमांक 5740 पर है। उनके परिवार को 74 फीसदी स्कोरिंग के साथ बीपीएल माना गया है। पूर्व विधायक का कहना है कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं थी। उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने ऐसा किया होगा। जिलाधिकारी मिलकर सूची से नाम निकलवाएंगे और जांच की मांग करेंगे।

मकौड़ा गांव सबसे ज्यादा 262 परिवारों को बीपीएल का दरजा दिया गया है। 59 लोग ऐसे हैं, जिनके नाम के अलावा कोई सूचना सूची में दर्ज नहीं है। इस गांव के लगभग 50 फीसदी बीपीएल परिवार अपात्र हैं। ऐसे ही दो परिवार नोएडा के निठारी गांव में हैं। निठारी के पूर्व प्रधान विक्रम सिंह के पिता मामचंद पुत्र शेरा सिंह का नाम बीपीएल सूची में क्रमांक 8437 पर है। 89 फीसदी स्कोरिंग के साथ परिवार को गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। प्रधान के चाचा हंसराज को भी क्रमांक 8436 पर 89 फीसदी स्कोरिंग के साथ बीपीएल लिस्ट में शामिल किया गया है। जबकि इस परिवार के पास करोड़ों रुपये की संपत्ति है। टाटा सफारी जैसी कई कार हैं। निठारी गांव में मार्केट है। विक्रम सिंह का कहना है कि इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। वे तो खुद ग्राम प्रधान रह चुके हैं। आज पहली बार इस बात का पता लगा है। राजेंद्र शर्मा पुत्र बनारसी का परिवार भी बीपीएल लिस्ट में है। गांव के ग्यारह परिवारों में से केवल चार परिवार बीपीएल श्रेणी में आने लायक हैं।

बीपीएल में शामिल लोगों को केंद्र सरकार हर महीने निशुल्क अनाज दे रही है। मनरेगा के तहत १०० दिन का काम दिया जाता है। इन परिवारों के युवक किसी नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाएंगे तो रेल में निशुल्क और बसों में छूट के साथ यात्रा कर सकते हैं। इंदिरा आवास योजना में घर बनाने को अनुदान मिलता है। बच्चों को पढ़ाने के लिए आर्थिक सहयोग मिल रहा है। यह बात अलग है कि करोड़पतियों के परिवार ये सुविधाएं ले रहे हैं या नहीं।

मामले में जिला प्रशासन भी कुछ नहीं कर सकता। दरअसल बीपीएल सूची को भारत सरकार मान्यता दे चुकी है। मुख्य विकास अधिकारी डा.सारिका मोहन का कहना है कि अब केवल केंद्र सरकार को पत्र लिखा जा सकता है। सूची से नाम हटाने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है। जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल का कहते हैं कि कोई शिकायत नहीं मिली और ऐसी जानकारी भी नहीं है। अगर शिकायत मिलेगी तो जांच करवाएंगे। प्रकरण उनके संज्ञान में पंद्रह दिन से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन कोई कार्यवाही अभी तक नहीं की गई है।

यह गोरखधंध अकेले गौतमबुद्धनगर में ही नहीं है। पूरे उत्तर प्रदेश और बाकी राज्यों में भी चल रहा है। मैं गौतमबुद्धनगर में काम कर रहा हूं तो यहां के बारे में साक्ष्यों के साथ बात कर सकता हूं। बाकी सूचनाएं विभिन्न समाचार माध्यमों से आती रही हैं।
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Sunday, April 18, 2010

नहीं रहे दुनिया बदलने वाले

बीमारी, भूख और अज्ञानता इंसान के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इनसे लडऩे वाले लोग बहुत कम हैं। जो ऐसा कर पाते हैं, वे दुनिया को बदल देते हैं। हालांकि जीवन भर इन समस्याओं से लडऩे वालों के बारे हमें बहुत कम जानकारी हैं। पिछले कुछ महीनों में ऐसे छह इंसान इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं। हरित क्रांति, आधुनिक अर्थशास्त्र, दिल की बीमारी का इलाज, हाइड्रोजन बम और इंसानी वजूद की खोज इन लोगों ने की थी। इन्हें कभी दुनिया ने नोबेल से नवाजा था। इन सबके रिश्ते भारत से रहे हैं। उनकी खोज से हमें बड़े फायदे हुए हैं।

सर जिम ब्लैक
सबसे पहले बात करते हैं सर जिम ब्लैक की। जिम ब्लैक की मौत हाल में 22 मार्च, 2010 को हुई है। इस शख्स ने दुनिया भर के उन करोड़ों लोगों के लिए दवाएं खोजीं, जो डिप्रेशन, हार्ट बर्न और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों की चपेट में हैं। उच्च रक्तचाप, हृद्य रोगों के लिए पहली बीटा ब्लॉकर ड्रग प्रोपरानोलोल और पेट में अल्सर के लिए हिस्टामाइन एच-2 रिसेप्टर एंटागोनिस्ट दवा सिमेटीडाइन की खोज की। ये दवाएं आज डिप्रेशन, दिल और पेट की बीमारियों से पीडि़त लोगों का जीवन बचा रही हैं। स्कॉटिश डॉक्टर जिम ब्लैक को 1988 में मेडीसीन के नोबेल से नवाजा गया था। वर्ष 2001 में दिए अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मानव सेवा उनका धर्म है। जिसे वे पूरा कर रहे हैं। भारत के परिप्रक्ष्य में उनकी खोज का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यहां प्रत्येक पांचवां रोगी उनकी दवा का सेवन कर रहा है।

मार्शल वारेन निरेनबर्ग
दूसरे हैं मार्शल वारेन निरेनबर्ग। निरेनबर्ग और भारतीय मूल के जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर हरगोविंद सिंह खुराना को 1968 में संयुक्त रूप से मेडीसीन का नोबेल दिया गया था। निरेनबर्ग की इसी साल 15 जनवरी को मौत हो गई है। निरेनबर्ग ने हरगोविंद सिंह खुराना के साथ मिलकर जेनेटिक कोड की खोज की। बताया कि डीएनए में आरएनए होता है। जो प्रोटीन संश्लेषण करता है। इसमें यूरेसिल और न्यूक्लियोटाइड होते हैं। यह खोज आज बीमारियों का इलाज करने से लेकर अपराधियों को पकडऩे तक में मददगार साबित हो रही है। चिकित्सा विज्ञान की स्टेम सेल थैरेपी जैसी नवीनतम विधा इसी अनुसंधान की कड़ी है। आने वाले वर्षों में यह क्रांतिकारी साबित होगी।

पॉल सैमुअलसन
जिस तीसरे शख्स के बारे में बात करेंगे, उसने भारतीय अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था को सीधा लाभ पहुंचाया है। भारत में अर्थशास्त्र और प्रबंधन को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में उनका योगदान है। अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल सैमुअलसन ने सबसे पहले अर्थशास्त्र का गणितीय आधार पर वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। इकोनोमिक्स को विज्ञान का दर्जा दिलाने में उनके योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1970 में नोबेल से नवाजा गया। वर्ष 1961 में जब भारत सरकार ने फोर्ड फाउंडेशन के साथ मिलकर पहले प्रबंधन संस्थान (भारतीय प्रबंधन संस्थान, कलकत्ता) की नींव रखी थी तो पॉल सैमुअलसन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कई साल तक बतौर शिक्षक आईआईएम को सेवाएं दीं। आईआईएम, कोलकाता के परिचय में इस आदमी का नाम सबसे पहले आता है। यहां से निकले भारतीय प्रबंधकों की आज दुनिया में धाक है। पिछले साल क्रिसमस से पहले 13 दिसंबर, 2009 को उनकी मृत्यु हुई। वे दिलचस्प लेखक भी थे। हंसमुख अंदाज में काम करना उनकी आदत थी। एक अच्छे अर्थशास्त्री के लिए यह जरूरी है। सैमुअलसन की किताबें भारत सहित दुनियाभर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं।

विटैली गिंजबर्ग
एक नाम है विटैली गिंजबर्ग। रूस के भौतिक शास्त्री गिंजबर्ग ने अपने देश के लिए हाइड्रोजन बम बनाया। उनकी रक्षा उपलब्धि ने अमेरिका और रूस के बीच शक्ति संतुलन स्थापित किया। जिसका फायदा भारत को भी हुआ। आगे चलकर उन्होंने सुपर कंडक्टर्स थ्योरी का सूत्रपात किया। जिसके मुताबिक बिजली बिना किसी प्रतिरोध के बेहद कम तापमान पर गुजर सकती है। इस खोज के लिए उन्हें वर्ष 2003 में नोबेल दिया गया। हालांकि उन्हें बहुत पहले रूसी राजनीति से लगभग बेदखल कर दिया गया था। दरअसल 1946 में उन्होंने दूसरा विवाह किया। उनकी इस पत्नी का नाम रूसी नेता जोसफ स्टालिन की हत्या में शामिल लोगों में था। जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। गिंजबर्ग ने भारतीय भौतिक शास्त्रियों को महत्वपूर्ण सहयोग दिया। जिसके लिए उन्हें इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज ने 1977 में ऑनरेरी फेलो बनाया था। नोबेल पुस्कार मिलने पर उन्होंने लिखा 'यह सब अवसरों की श्रृंखला है। मेरी उम्र 87 साल है। भविष्य में शायद फिर कभी अपने बारे में लिखने का मौका मिले। बीते 08 नवंबर, 2009 को मास्को में उनकी मौत हुई। उनके अंतिम संस्कार में कई भारतीय वैज्ञानिकों ने शिरकत की।

नोरमैन बोरलोग
नोरमैन बोरलोग, इस नाम को शायद ही कोई पढ़ा-लिखा भारतीय नहीं जानता होगा। दुनिया में हरित क्रांति के पिता और करोड़ों लोगों पर मंडरा रही भुखमरी की काली छाया को इस आदमी ने दूर किया। नोरमैन बोरलोग ने भारत समेत पूरी दुनिया को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए दिन-रात काम किया। उनके समकालीन जैव विज्ञानी डा.पॉल आर एरलिच ने अपनी किताब 'द पोपुलेशन बॉम्ब में लिखा है कि 1960 के दशक में दुनिया भूख से युद्ध लड़ रही थी। मेक्सिको (अमेरिका) के रहने वाले बोरलोग के काम की शुरूआत तो 1950 के दशक में हो गई थी। 1960 के बाद से परिणाम सामने आने लगे। उन्होंने ज्यादा पैदावार देने वाले गेहूं की लगभग 200 प्रजातियां विकसित कीं। मई 1962 में पहली बार कुछ प्रजातियां पूसा के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में उगाई गईं। जिसके परिणाम देखकर संस्थान के सदस्य एमएस स्वामीनाथन ने निदेशक डा.बीपी पाल से निवेदन किया कि बोरलोग को भारत बुलाया जाए। कृषि मंत्रालय को पत्र लिखा गया और मार्च 1963 में रोकफेलर फाउंडेशन और मेक्सिको सरकार के कहने पर बोरलोग ने भारत का दौरा किया।

अक्तूबर 1963 में प्रत्येक प्रजाति का 100 किलोग्राम बीज भारत भेजा गया। जिसे दिल्ली, लुधियाना, पंतनगर, कानपुर, पुणे और इंदौर में रोपा गया। बात नही बनी तो 1965 में बोरलोग की टीम ने मेक्सिको में 450 टन बीज तैयार किया। इसमें से 200 टन भारत और 250 टन पाकिस्तान को दिया जाना था। शिकागो में हिंसक दंगों के कारण भारत में समय से बीज नहीं पहुंच सका। दूसरी ओर पाकिस्तान की ओर से भेजा गया एक लाख डॉलर का चैक बाउंस हो गया। जिस पर पाक के तत्कालीन कृषि मंत्री मलिक खुदा बख्श बूचा ने बोरलोग को पत्र लिखकर कहा 'मैं चैक के कारण आई परेशानी के लिए शर्मिंदा हूं। लेकिन दिक्कत की कोई बात नहीं है। हमारे पास पर्याप्त धन मौजूद है। 1966 में भारत ने 18 हजार टन बीज का आयात किया। जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा बीज आयात था। 1967 में पाकिस्तान ने 42 हजार और टर्की ने 21 हजार टन बीज आयात किया। 1968 में जब भारत में गेहूं की फसल कटी तो जूट की बोरियां, ट्रक, रेलगाडिय़ों के डिब्बे और गोदाम कम पड़ गए। 1967 के 12.2 मिलियन टन के मुकाबले 1969 में 20.1 मिलियन टन गेहूं पैदा हुआ। 1974 तक भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और 1975 में बोरलोग की टीम के अगुवा डा.रॉबर्ट ग्लैन एंडरसन वापस लौट गए।

बोरलोग ने 1986 में वल्र्ड फुड प्राइज की स्थापना की और 1987 में पहला पुरस्कार एमएस स्वामीनाथन को दिया। स्वामीनाथन ने पुरस्कार में मिली ढाई लाख डालर की राशि से रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की। 1970 में बोरलोग को शांति का नोबेल दिया गया। भारत सरकार ने उन्हें 2006 में दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्म विभूषण दिया। बीते 12 सितंबर, 2009 को बोरलोग तो नहीं रहे। 2001 में उन्होंने नोबेल प्राइज फाउंडेशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में कहा 'भूखो पेट के साथ शांति स्थापित नहीं की जा सकती।
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Sunday, March 21, 2010

'डूब' रही हैं नदियां

नदियों के पानी की वजह से हरे-भरे रहने वाले उत्तर प्रदेश में अब हर साल सूखा तांडव करता है। कृषि उत्पादन लगातार घटता जा रहा है। यहां तीन नदियां समाप्त हो गईं हैं और पांच का अस्तित्व खतरे में है। नदियों पर संकट की बाबत प्रदेश सरकार का जल संाधन विकास, सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग कई बार रिपोर्ट दे चुका है। लेकिन हालात सुधरने की बताय लगातार बिगड़ रहे हैं।

गंगा और यमुना की आठ सहायक नदियां हिंडन, कृष्णा, गांगन, बान गंगा, राम गंगा, काली, नीम और करवन दोआब के सहारनपुर, मेरठ, अलीगढ़, आगरा, मुरादाबाद और बरेली मंडलों में बहती हैं। नीम, करवन और गांगन नदी समाप्त हो चुकी हैं। बाकी पांच बरसाती नाले बनकर बह रही हैं। दरअसल नदियों के तटबंधों की मरम्मत और विकास बरसों से रुका है। सरकार का जोर केवल नहरी परियोजनाओं पर रहा है। जबकि नहरों की क्षमता महज 2.5 लाख क्यूसेक है। सहायक नदियों समेत गंगा और यमुना में 20 लाख क्यूसेक से ज्यादा पानी होता है। गंगा और यमुना उत्तर प्रदेश की लाइफ लाइन हैं। इनकी सहायक नदियां धमनी और शिराओं की तरह धरती को सींचने का काम करती थीं।लेकिन अब इन नदियों में पानी पहुंचता ही नहीं। 22 जिलों के 69 शहर, 38 हजार गांव और 2.5 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं। हिंडन आठ जिलों को प्रभावित करती है। लगभग 182 किलो मीटर लंबी दूरी तय करने वाली यह नदी औद्योगिक और शहरी अपशिष्टï की वाहक बन चुकी है। आईआईटी दिल्ली के चार विशेषज्ञों की एक टीम ने सालभर पहले रिपोर्ट देकर बताया है कि नदी में जीवन समाप्त हो गया है। कृष्णा नदी चार जिलों में 140 किमी चलकर बागपत जिले में हिंडन में समा जाती है। इस नदी में पानी केवल बरसात के दिनों में नजर आता है। काली नदी दस जिलों में बहती है। यह शहरी सीवर लाइन जैसी गंदी हो चुकी है। नीम और करवन नदी समाप्त हो गई हैं। गांगन बरसाती नाला बन चुकी है। राम गंगा और बान गंगा में नहीं की बराबर पानी है।

प्रभाव सूखे के रूप में देखने के लिए मिल रहा है। नदियों के समाप्त होने से हर साल सूखे की चपेट में खेतीबाड़ी आ रही है। सरकार को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हर साल करोड़ों रुपया बाढ़ नियंत्रण एवं सूखा राहत योजना पर खर्चना पड़ता है। दूसरी ओर किसानों को अरबों रुपये का नुकसान सहना पड़ता है। पिछले पांच सालों के हालात देखें तो वर्ष 2००4 में 27.23 लाख हेक्टेयर फसल सूखे की चपेट में आई। किसानों को लगभग 550 करोड़ रुपये की हानि हुई। सरकार को बचाव पर 88 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे। वर्ष 2005 में 21.12 लाख हेक्टेयर फसल सूखे की भेंट चढ़ गई। किसानों को 521 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सरकारी खजाने पर एक अरब से ज्यादा की चोट पड़ी। 2006 में 13.29 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल पर खेती सूखे के कारण बर्बाद हुई थी। जिससे किसानों को 201 करोड़ रुपये की हानि हुई। सरकार को 28 करोड़ रुपये किसानों को राहत के तौर पर देने पड़े। वर्ष 2007 में सबसे ज्यादा 30.66 लाख हेक्टेयर भूमि पर फसलें सूख गईं। किसानों को 615 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। सरकार ने 125 करोड़ रुपये किसानों को बतौर मुआवजा दिए। 2008 में 5.50 लाख हेक्टेयर फसलें पानी की कमी के कारण सूखीं।

हमें हर कम से कम 4.5 फीसदी की दर से कृषि क्षेत्र में विकास की जरूरत है। दर दो फीसदी से आगे नहीं बढ़ पा रही है। जिसके लिए सूखा सबसे बड़ा जिम्मेदार है। सरकारों को नदियां डूबने से बचानी होंगी। नहीं तो उत्तर प्रदेश में खेतीबाड़ी के लिए दिन और बुरे आने वाले हैं। जिसका खामियाजा हर किसी को भुगतना पड़ेगा।
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Tuesday, March 9, 2010

चल रहे हैं 15 फीसदी जाली नोट

पिछले पांच साल के दौरान जाली नोटों की पुलिस बरामदगी लगातार बढ़ी है। खुद केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक मानते हैं कि लगभग 90 हजार करोड़ रुपये या कुल प्रचलित मुद्रा का 15 फीसदी हिस्सा जाली नोट हैं। यह भयावह स्थिति है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर एक नजर डालने की जरूरत है। वर्ष 2001 में 934 मामले सामने आए। जिनमें 5.30 करोड़ रुपये की कीमत के 2,15,992 नोट पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों ने बरामद किए हैं। वर्ष 2002 में मामलों और नोटों की संख्या बढ़कर 829 और 3,31,034 हो गई। इन नोटों की कीमत 6.6 करोड़ रुपये थी। वर्ष 2003 में मामले 1,464 और नोट बढ़कर 3,88,843 हो गए। जिनकी कुल कीमत 5.7 करोड़ रुपये थी। वर्ष 2004 में मामले कुछ घटकर 1,176 रह गए लेकिन नोटों की संख्या बढ़कर 4,34,700 हो गई। जिनकी कीमत 7 करोड़ रुपये थी। वर्ष 2005 में 1,990 प्रकरणों में 3,61,700 नोट पकड़े गए। कीमत 6.9 करोड़ रुपये थी। वर्ष 2006 में 1,789 मामलों के जरिए 8.4 करोड़ रुपये की कीमत के 3,57,456 नकली नोट पकड़ में आए। वर्ष 2007 में 2,294 मामलों में 10 करोड़ रुपये देशभर में मिले।

बैंकों की पकड़ में आए नकली नोट अगल हैं। इनकी संख्या और कीमत भी भारी भरकम है। वित्तीय वर्ष 2004-05 में देशभर के बैंकों ने 1,81,928 नकली नोट पकड़े। जिनकी कीमत 2,43,35,460 थी। 2005-06 में 1,76,75,150 रुपये कीमत के 1,23,917 नोट पकड़े थे। इसी तरह वर्ष 2006-07 के दौरान 2,31,90,300 रुपये के 1,04,743 नकली नोट पकड़ में आए थे। 2007-08 में 1,95,811 नकली नोट पकड़े गए। जिनकी कीमत 5,49,91,180 रुपये थी। वर्ष 2008-09 और 2009-10 की रिपोर्ट अभी नहीं आई हैं।

दिल्ली पुलिस के पूर्व आयुक्त तिलकराज कक्कड़ और थल सेना के पूर्व ब्रिगेडियर विशिष्टï सेवा मेडल चितरंजन सांवत तो इसे भारतीय अर्थव्यवस्था पर आतंकी हमला करार देते हैं। इन लोगों का मानना है कि जितने घातक खूनी हमले हैं उससे कहीं ज्यादा खतरनाक यह हमला है।

एटीएम के जाली नोट का बैंक जिम्मेदार

आम आदमी की जेब तो दूर अब तो नकली नोटों ने रिजर्व बैंक की करेंसी चेस्ट और एटीएम मशीनों तक अपनी पकड़ बना ली है। एटीएम ने नकली नोट निकलने की सूचना साधारण सी घटना है। लेकिन इस समस्या को खत्म करने के लिए रिजर्व बैंक ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। आरबीआई ने एक आदेश जारी करके निश्चित किया है कि एटीएम या किसी बैंक काउंटर से मिले जाली नोट के लिए बैंक कर्मचारी ही जिम्मेदार होंगे। उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज होगा और जुर्माना भी किया जाएगा।

बैंकों और एटीएम मशीनों से मिल रहे नकली नोटों ने आम आदमी के अलावा सरकार की भी नींद हराम कर दी है। पिछले साल गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर और मेरठ समेत कई जिलों में बैंकों पर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने छापे मारकर नकली नोट बरामद किए थे। तब करेंसी चेस्ट में नकली नोट मिलने की घटना से सब हैरान रह गए थे। जिसके बाद आरबीआई का रुख सख्त हो गया। आरबीआई के मुख्य महाप्रबंधक यूएस पालीवाल की ओर से जारी आदेशों के मुताबिक किसी बैंक, करेंसी चेस्ट और एटीएम मशीन से नकली नोट मिलना गलत है। इसकी पूरी जिम्मेदारी बैंक कर्मचारियों पर बनती है। उनके खिलाफ जाली नोट संचालित करने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। जाली नोटों की कीमत के बराबर जुर्माना वसूला जाएगा। सीजीएम ने आदेश दिया है कि किसी भी तरह बैंक को मिलने वाले जाली नोट की जानकारी रिजर्व बैंक और केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के उप महानिदेशक को देनी होगी। ऐसा नहीं करने पर कार्रवाई होगी।

Sunday, March 7, 2010

ये स्कूल हैं या द्रोणाचार्य की पाठशाला

जितनी अच्छी शिक्षा की बात हम कर रहे हैं स्कूलों के हालात उतने ही ज्यादा खराब होते जा रहे हैं। विद्यालयों में भेदभाव किया जा रहा है। हाल में दो सनसनीखेज मामले सामने आए हैं। दोनों प्रकरण ग्रेटर नोएडा से ताल्लुक रखते हैं। दादरी कसबे के एक स्कूल ने 38 छात्रों को परीक्षा नहीं देने दी। कारण, बच्चे सही समय पर फीस नहीं चुका पाए। क्या यही समस्या का वाजिब समाधान था? नहीं, परीक्षा तो दिलवाई जा सकती थी। अगर प्रबंधन चाहता तो परीक्षा परिणाम रोक लेता। फीस वसूलने के बाद परिणाम घोषित किया जा सकता था। स्कूल के प्रधानाचार्य ने 38 छात्रों को रोकने की बात कुबूल की है। कई लोगों का आरोप है कि लगभग 250 छात्रों को परीक्षा से रोका गया है।

अब दूसरा मामला देखिए। ग्रेटर नोएडा के दिल्ली पब्लिक स्कूल में कक्षा आठवीं में प्रवेश लेने के लिए अनुभव शर्मा नामक छात्र ने प्रवेश परीक्षा दी थी। वह सफल रहा। विद्यालय प्रबंधन ने उसे साक्षात्कार के लिए बीती 22 फरवरी को बुलाया लेकिन साक्षात्कार नहीं लिया। कहा गया कि किसी दिन बाद में साक्षात्कार होगा। छात्र और अभिभावक पंद्रह दिनों तक भटकते रहे। आखिर में उन्हें स्कूल की ओर से बताया गया कि गांव में रहने वाले छात्रों को दाखिला नहीं दिया जाता है। दो लाख रुपये डोनेशन भी नहीं दे पाओगे। दोनों मामलों की शिकायत जिला प्रशासन से की गई है। जांच की जा रही है। लेकिन जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई नहीं हो पाएगी। अनुभव को शायद दाखिला मिल जाए और दादरी में छात्रों की परीक्षा ले ली जाए। परन्तु दुष्प्रभावों पर विचार करने की जरूरत है। अनुभव और दूसरे छात्रों की उम्र बमुश्किल 10-13 साल है। इस घटना से बालक के मन में शहरी स्कूलों और बच्चों के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया होगा। ताउम्र इस बुरी घटना को याद रखेंगे। भविष्य में इसके बुरे परिणाम भी निकल सकते हैं।

गांवों के बच्चों को दाखिला नहीं देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। नोएडा और दिल्ली समेत तमाम शहरों में यह कुप्रथा जड़ें जमाए है। आजकल के फाइव स्टार स्कूलों में द्रोणाचार्य की तरह केवल राजकुमार पढ़ रहे हैं। गरीब और गांव के बच्चे इन्हें अच्छे नहीं लगते। अगर कोई इन राजषी पाठशालाओं में भरती हो भी जाए तो गुरू दक्षिणा बहुत ज्यादा होती है। महाभारत काल में एकलव्य को इस गुरू दक्षिणा का खामियाजा भुगतना पड़ा था। द्रोणाचार्य ने उसे अपनी पाठशाला में बुलाकर अंगूठा ले लिया था। अब तो अंगूठा नहीं लाखों रुपये की जरूरत होती है।

फाइव स्टार स्कूलों से जुड़ी और भी कई शर्मनाक घटनाएं हैं। ज्यादातर आपने खूब सुनी हैं। चंडीगढ़ के एक स्कूल ने पिछले सप्ताह एक छात्रा को परीक्षा देने से रोक दिया। कारण, छात्रा के साथ दुष्कर्म हुआ था। जिसके बाद प्रबंधन ने सोचा कि अगर छात्रा स्कूल में रहेगी तो माहौल खराब होगा। अंतत: छात्रा ने विद्यालय को कानूनी नोटिस भेजा। जिसके बाद परीक्षा देने की अनुमति मिल गई। अब प्रबंधन सफाई देता घूम रहा है। पिछले दिनों हरियाणा के डीजीपी एसपीएस राठौर द्वारा प्रताडि़त रुचिका गेहरोत्रा का प्रकरण सामने आया था। रुचिका को भी उसके स्कूल ने निकाल दिया था। इन द्रोणाचार्य की पाठशालाओं से जुड़े न जाने और कितने मामले हैं जिनका हमें पता नहीं लगा है। सवाल यह उठता है कि इन स्कूलों में पढ़ रहे छात्र कैसे गुण लेकर बाहर निकलेंगे?
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Tuesday, February 16, 2010

पाक से बातचीत पर कैसा ऐतराज ?

पुणे में आतंकी हमला होने से पहले ही भारतीय जनता पार्टी के सारे नेता पाकिस्तान से बातचीत करने के मुद्दे पर सरकार का विरोध करने लगे थे। बम विस्फोट के बाद तो पुरजोर विरोध कर रहे हैं। तर्क है, बातचीत और आतंकवाद एकसाथ नहीं चल सकते। जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों को खत्म नहीं करेगा, तब तक बातचीत शुरू नहीं होनी चाहिए। बयानबाजी के अगुवा लाल कृष्ण आडवाणी जी हैं। शायद आडवाणी जी अपने अग्रज और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल को भूल गए हैं। उस सरकार में खुद गृहमंत्री थे। हालांकि यह बात दूसरी है कि अब वे कंधार प्लेन हाईजैक पर हुए फैसलों से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। हो सकता है कुछ बात याद हों।
सबसे पहले बात करते हैं पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर शिखर वार्ता की। 20-21 फरवरी 1999 को यह बातचीत हुई। संयुक्त बयान जारी हुए। कारोबार शुरू किया गया और दोनों मुल्कों के बीच रेल, बस यातायात तक शुरू करने का निर्णय लिया गया। सचिव से लेकर प्रधानमंत्री तक ने पाकिस्तान से बात की। महज तीन महीने बाद पाकिस्तान ने करगिल में घुसपैठ की। जंग छिड़ी और सैकड़ों जवान शहीद हो गए। कुछ दिन बाद ही 24 अक्तूबर 1999 को इंडियन एयरलाइंस का प्लेन हाईजैक किया गया। पाक के आतंकवादी छोड़े गए। हालांकि इस फैसले से खुद को आडवाणी जी अलग करार देते हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद भाजपा की सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत की। जम्मू-कश्मीर में तो तब भी आतंकवादी हमले हो रहे थे। इसके बावजूद नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार को उखाडऩे वाले तानाशाह परवेज मुशर्रफ को 15-16 जनवरी 2001 को आगरा बुलाकर शिखर वार्ता (बातचीत) की गई। क्या हुआ, बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला। परवेज मुशर्रफ आगरा में ताजमहल और दिल्ली में अपने पुरखों की हवेली देखकर चला गया। पूरा साल नहीं बीता और 13 दिसंबर 2001 को देश की अस्मिता पर हमला हुआ। लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों ने संसद पर हमला कर दिया। उसके बाद भी आडवाणी जी की सरकार ने पाकिस्तान की ओर बातचीत के लिए हाथ बढ़ाए रखा। अटल बिहारी वाजपेयी जी और आडवाणी ने कहा था कि बातचीत के लिए भारत हमेशा तैयार है।
अब क्या समस्या है, पाकिस्तान पहले से ज्यादा खुंखार हो गया है या भारतीय जनता पार्टी को अब समझ में आया है कि आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते। ऐसा कुछ नहीं है। बल्कि भाजपा केवल परंपरागत विपक्ष की भूमिका का निर्वाह कर रही है। यही हमारे देश के लिए विडंबना रही है कि विपक्ष का मतलब सत्ता पक्ष के अच्छे या बुरे, सभी कामों का विरोध करना है। हमारे नेता राष्टï्रीय हित को ध्यान में रखकर बयान नहीं देते, नीति नहीं बनाते। वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए बोलते हैं। कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिïकरण का आरोप लगाया जाएगा, तभी तो हिंदु भाजपा की ओर देखेंगे। भाजपा को नितिन गड़करी के रूप में भले ही युवा नेतृत्व मिल गया है लेकिन लीवर तो आडवाणी जी के हाथों में है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में दिग्विजय सिंह सरीखे नेता आजमगढ़ में जाकर आतंकियों के पक्ष में बयान दे देते हैं। जिससे भाजपा का कांग्रेस पर लगाया गया आरोप आम आदमी को सही नजर आने लगता है। अच्छा रहेगा कि भारत सरकार पाक से बातचीत करे। यह देखना जरूरी नहीं है कि कितनी सफलता मिलेगी। हालांकि भारत में प्राइमरी स्कूल का छात्र भी जानता है कि पाक को बात की नहीं लात की भाषा समझ में आती है। जब तक हम युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हो जाते जरूरी है बातचीत के जरिए मन टटोलते रहें। कूटनीति भी कहती है कि दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहना चाहिए।
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